कोरोना के प्रकोप के बीच बिहार में चुनाव सम्पन्न हुआ और पिछले चुनाव से ज्यादा मतदान हुआ। बिहार में विधानसभा की 243 सीटों पर चुनाव हुए। चुनाव कराना कितना जरूरी था। इसका तो खैर सरकार और चुनाव आयोग ही जाने परन्तु चुनाव आयोग अपने प्रबंधन के कारण बधाई का पात्र अवश्य है। इस बीच कोरोना काल में दूसरे प्रदेशों में रह रहे बिहारियों का पैदल पलायन चर्चा का विषय रहा, वो भी बिना बिहार सरकार के किसी सहायता के। फिर भी एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। देश की राजनीति में अहम भूमिका रखने वाले बिहार में विधानसभा चुनाव की मतगणना 10 नवंबर को सुबह से शुरू हुई और देर रात्रि तक पूरी हुई। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को 125 सीटें हासिल हुई और महागठबंधन ने करारी टक्कर देते हुए 110 सीटें ही पाई। अन्य को सिर्फ 8 सीटें मिल सकीं। एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़े लोजपा के चिराग पासवान अपना खुद का चिराग़ जलाने में असफल रहे, लेकिन जेडीयू को अवश्य ही भारी नुकसान पहुंचाया। बिहार की जनता ने मोदी-नीतीश गठबंधन को पूर्ण बहुमत देकर अपने भाग्य का निर्धारण कर लिया कि सत्ता अगले पांच वर्षों में किसके हाथो में होगी। नीतीश कुमार का “सोशल इंजीनियरिंग” वाला फार्मूला कारगर रहा। 2005 से नीतीश कुमार बिहार में मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने लेख शिरीष के फूल में भारतीय नेताओं के सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण पंक्ति लिखी हैं: “जो नेता समय को नहीं पहचानते तथा धक्का देने पर ही पद को छोड़ते हैं। पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती। जब तक कोई युवा नेता आकर उसको पद से नहीं हटा दें तब तक वह पद नहीं छोड़ते है।”
नीतीश कुमार भी 15 वर्षों से मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं लेकिन अब भी यह लिप्सा है कि वो पद पर बने रहे। तेजस्वी यादव ने जरूर जनमत के बलबूते उन्हें हटाने की कोशिश की परन्तु यह कोशिश नाकामयाब रही। नीतीश कुमार ने जरूर इस चुनाव में ‘यह मेरा अंतिम चुनाव हैं’ कहकर जनता से भावुक अपील की और जीत भी गए लेकिन देखना यह होगा कि वो जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे या नहीं।
अगर हम बिहार के चुनावी इतिहास की बात करें तो 1951 से ही बिहार में विधानसभा चुनाव की शुरुआत हुई थी। इसके बाद से 2020 तक बिहार में 17 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। साल 2005 की फ़रवरी में हुए चुनाव में सरकार नहीं बन पाने के कारण अक्टूबर में फिर से चुनाव आयोजित करने पड़े थे।
बात करते हैं अक्टूबर-नवंबर 2015 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों की। ये चुनाव पांच चरणों में पूरा हुआ था। इन चुनावों में सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस, जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, इंडियन नेशनल लोक दल और समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) ने महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था। वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के साथ चुनावी मैदान में कदम रखा था। 2015 का चुनाव कुल 243 सीटों पर हुआ था जिसमें सरकार बनाने के लिए 122 सीटों की ज़रूरत थी। चुनाव के नतीजे आने पर राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। इसके बाद जदयू को 71 सीटें और भाजपा को 53 सीटें मिली थीं। इन चुनावों में कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं। इस चुनाव में महागठबंधन की सरकार बनी और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, 2017 में जेडी(यू) महागठबंधन से अलग हो गई और नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाया।
अगर इससे पहले के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि 1990 से बिहार में मंडल-कमंडल व जेपी आंदोलन से राजनीति में प्रवेश करने वाले लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने थे और उसके बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद संभाला। लगभग पन्द्रह साल (1990-2005) तक लालू परिवार ने राज किया । “सोशल इंजीनियरिंग” का फार्मूला लेकर आए नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में खूब काम किया इसका लाभ उनको आने वाले चुनावों में मिला और लगभग पन्द्रह साल शासन करने के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर आ चुकी है। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह सरकार के खिलाफ जनाक्रोश है। जिसे कई वरिष्ठ पत्रकार सत्ता विरोधी लहर भी कहते है। और इसी वजह से इस बार डबल इंजन की सरकार में नीतीश अब छोटे भाई की भूमिका में आ गए हैं क्योंकि चिराग ने बीजेपी की मदद के साथ ही नीतीश की पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया है। एक बात तो साफ़ है कि बिहार की राजनीति में अकेले चुनाव जीतना बहुत मुश्किल है इसलिए तो इतने सारे गठबंधनों का निर्माण होता है, गठबंधन के बिना बिहार में कोई भी सरकार नहीं बना सकता है। गठबंधन की राजनीति बिहार चुनाव के रग- रग में बस चुकी है।
अगर हम इस बार के चुनाव परिणामों पर गौर करें तो पाएंगे कि तीन चरणों में सम्पन्न हुए इस चुनाव में अनेक पार्टियों ने हिस्सा लिया है जिनमें मुकाबला दो गठबंधनों में था: महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, लेफ्ट) और एनडीए (जदयू, भाजपा, हम, वीआईपी)। कड़े मुकाबले से पहले आए एग्जिट पोल में लगभग सभी में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बहुमत से बनती दिख रही थी। लेकिन चुनाव के नतीजों ने सारे एग्जिट पोल को गलत साबित कर दिया। अगर वोट प्रतिशत की बात करें तो आरजेडी को सर्वाधिक 23.1 प्रतिशत वोट, बीजेपी को 19.5 प्रतिशत, जेडीयू को 15.4 प्रतिशत, कांग्रेस को 9.48 प्रतिशत, एलजेपी को 5.66%, आरएलएसपी को 1.77%, एआईएमआईएम को 1.24%, बसपा को 1.49%, सीपीआई को 0.83%, सीपीआई-एम को 0.65% और अन्य को 18.85% वोट हासिल हुए।
एनडीए गठबंधन की जीत में प्रधानमंत्री मोदी की छवि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जंगलराज के मुद्दे पर राजद को उन्होंने खूब घेरा। चिराग पासवान ने अपने उम्मीदवार सिर्फ जदयू के खिलाफ उतारे थे जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी क्रमशः 4-4 सीटें जीतने में सफल रही। चिराग अकेलेपन के चक्कर में पिछले चुनाव के मुकाबले सिर्फ 1 ही सीट जीत पाए। इस चुनाव में तेजस्वी यादव युवा चेहरा बनकर उभरे। अपनी खुद की छवि जनता के समक्ष प्रस्तुत की। उनके नेतृत्व में राजद (75 सीटें) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। कांग्रेस को 70 सीटों पर चुनाव लड़ाने का फैसला तेजस्वी को भारी जरूर पड़ा इसके मुकाबले लेफ्ट पार्टियों ने 29 पर चुनाव लड़ने के बाद भी 16 सीटें ( भाकपा-2, भाकपा/मार्क्सवादी-2, भाकपा/माले-12 ) जीतने में सक्षम हुई। कांग्रेस सिर्फ 19 सीटों पर ही सिमट गई। महागठबंधन को सबसे ज्यादा नुकसान ओवैसी की एआईएमआईएम ने पहुंचकर 5 सीटें अपने खाते में जमा की। महागठबंधन के सारे मुस्लिम वोट ओवैसी की पार्टी को चले गये। बसपा ने भी खासा वोट काटा किंतु 1 ही सीट पर जीत दर्ज की। सुर्ख़ियो में आई प्लुरल्स पार्टी की पुष्पम प्रिया चौधरी भी कोई कमाल नहीं कर पाई। उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। पुष्पम प्रिया को खुद अपनी सीटों पर भी हार का सामना करना पड़ा।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार रोजगार का मुद्दा गरमाया रहा। महागठबंधन की ओर से सीएम पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने इस मुद्दे को उठाते हुए नीतीश कुमार सरकार पर जमकर निशाना साधा। यही नहीं आरजेडी नेता ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया कि उनकी सरकार बनते ही पहली कैबिनेट बैठक में 10 लाख नौकरियों के फैसले पर मुहर लगाएंगे। भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य, आईटी समेत विभिन्न क्षेत्रों में 19 लाख रोजगार देने का वादा किया। हर बिहारवासी को फ्री कोरोना वैक्सीन का वादा भी पार्टी ने किया। चुनावी पंडितों का मानना है कि रोजगार इस बार के चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है।
पहले बीजेपी को जदयू पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता था परन्तु अब बीजेपी खुद मजबूत हैं तो इसका प्रभाव बनने वाली सरकार पर जरूर पड़ेगा। देखना दिलचस्प होगा कि कैसे डबल इंजन की सरकार बिहार में बदलाव लाकर उसे नए आयाम दिलाने में सक्षम होगी या नाकाम। यह तो खैर भविष्य में ही पता चलेगा। गृहमंत्री अमित शाह ने पहले कहा था कि सीटें चाहे कितनी भी आएं, एनडीए में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे। अब जबकि, एनडीए को निर्णायक बढ़त के बीच जेडीयू को बीजेपी से कम सीटें मिलती दिख रहीं हैं तो अटकलें ये भी है कि नीतीश कुमार को दिल्ली भेज कर भाजपा अपना खुद का मुख्यमंत्री बिहार में बना सकती है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमाम अटकलों को खारिज कर दिया और कहा कि बिहार में एक बार फिर नीतीश कुमार के नेतृत्व में विकास के संकल्प को सिद्ध करेंगे। हालांकि नीतीश कुमार ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि बीजेपी को उन लोगों के भविष्य के बारे में फैसला करना चाहिए जो वोट काटने का काम करते हैं। यह पूछे जाने पर कि मुख्यमंत्री कौन होगा, नीतीश ने कहा, “इस बारे में एनडीए फैसला करेगा”। उन्होंने कहा, ”मैंने कभी इस बारे में दावा नहीं किया। एनडीए की बैठक होगी, उसमें इस बारे में फैसला होगा”।
लेकिन महागठबंधन को अभी भी उम्मीद है कि एनडीए में सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है और वो इस बात का इंतजार करेंगे कि मंत्रिमंडल में जीतन राम मांझी, मुकेश सहनी की पार्टियों को कितनी हिस्सेदारी मिलती है। क्योंकि अगर एनडीए में कुछ खटपट होती है तो महागठबंधन उसका फायदा उठा सकता है। महागठबंधन की बैठक में तेजस्वी यादव ने दावा किया है कि सरकार महागठबंधन की ही बनेगी, सभी विधायकों को पूरे महीने पटना में रहने को भी कहा गया है। महागठबंधन की बैठक के बाद तेजस्वी यादव ने कहा कि जनता का समर्थन महागठबंधन के साथ है, हमें करीब 130 सीटें मिली हैं। लेकिन नीतीश कुमार ने छल-कपट से सरकार बना ली है। तेजस्वी ने कई सीटों पर काउंटिंग में धांधली का आरोप लगाया।
फिलहाल नीतीश कुमार 16 नवंबर को भाई दूज के दिन बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले सकते हैं। अभी मंत्रिमंडल पर कोई फैसला नहीं हुआ है।
लेकिन बात करते हैं बिहार की जहाँ का इतिहास अति गौरवशाली रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय, पाटलिपुत्र, बोधगया, मधुबनी, जेपी आंदोलन, बुद्ध की धरती, चम्पारण सत्याग्रह आदि का स्थान जहाँ हो उस राज्य की इतनी दुर्गति कैसे हो सकती है? चुनाव आते ही नेता जनता के पैरों को पकड़ने लगते हैं और अपना पांच वर्ष का बंदोबस्त कर लेते हैं। आज बिहार को ऐसी राजनीति की जरूरत है जो बिहार में स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की संभावनाएं पैदा कर बिहार को गरीबी के टैग से बाहर निकालें, राजनीति में बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट का सिर्फ नारा ही पर्याप्त नहीं है उसको सही साबित करने का प्रयास भी करना होगा जिससे बिहार फर्स्ट बन सकें। बिहार की जनता से राजनेता खेलते हैं, जनता को खेलने का मौका नहीं मिलता है। वर्तमान में बिहार और राजनीति एक दूसरे के नकारात्मक पर्याय के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, राजनीति में से नीति शब्द गायब हो गया है ऐसा दिखाई देता है। लेकिन हमें जरूरत है कि बिहार भी उसी तरह से आगे बढ़ें जैसे भारत के दूसरे राज्य बढ़ रहे हैं जिससे कि सारे बिहारियों को गर्व हो।
बिहार की जनता को नयी सरकार से बहुत सी उम्मीदें हैं। बिहारियों को अब शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की चाह है और नयी सरकार को आने वाले पाँच वर्षों में ऐसा काम करना चाहिए जिससे मजबूत बिहार का निर्माण हो।
– जीवराज दहिया
jeev1074@gmail.com
The featured image first appeared in the Business Standard’s article, dated October 28, 2020.
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