top of page

भीड़, मणिपुर और हिंसा

Utkarsh Mishra

आज तक तो इतना स्वभाविक जाना था कि भीड़ अपने आप में एक अलग ही अनुसंधान का विषय है। इसका उन्माद अपने उत्कर्ष को तुरंत छू जाया करता है। कुल जमा समझें तो भीड़ का तत्व उन्मादी है। ये उन्माद न केवल उत्साह बल्कि हर प्रकार की भावुकता से बनता है। किसी भी भाव की पराकाष्ठा तक पहुँचने में भीड़ को देर नहीं लगती। अगर देखें तो भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक उन्माद के एकरेखीय भाव को पालता है। एकरेखीय प्रभाव इसलिए क्योंकि बिना चेतना का पूर्ण उपयोग किए, भीड़ का प्रत्येक व्यक्ति एक उन्मादी लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। भीड़ के तेवर बदलने में देर नहीं लगती। भीड़ का रोष उससे जघन्य से जघन्य अपराध कराने को आसान बना देता है। भीड़ को न कानून का भय होता है न ही प्रशासन का। भीड़ की मानसिकता में प्रशासन, जिला, कानून, पुलिस, लॉ एंड आर्डर जैसी किताबी परिभाषाओं का मूल्य नगण्य हो जाया करता है। इनको रोकने के लिए शायद कठोर बल प्रयोग कार्य कर सकता है जो इन्हें रुकने पर मजबूर करे, या फिर ऐसी कोई घोषणा या सूचना जो उस भीड़ के अवचेतन को अचानक झकझोर दे, पर इसकी न्यूनतम सम्भावना होती है।



कुछ सिनेमा जगत के डायलॉग भीड़ की इस प्रलयंकारी शक्ति शक्ति का वर्णन करते हैं। मुन्ना भाई एम. बी. बी. एस. (2003) हो या फिर रेड (2018) जैसी फिल्म, जिसमें यहाँ तक कहा गया है कि हमारे देश में आज तक भीड़ को सजा नहीं हुई। 1955 में आई फिल्म श्री 420 भी भीड़ के प्रभाव को दशार्ती है। उदाहरण अनेक हैं पर आज तक भीड़ को संभालने का कोई प्रमाणिक तरीका सामने नहीं आया। कहते हैं कि उन्मादी भीड़ कुछ भी कर सकती है। शायद यह उनके ग्रसित मानसिक शक्ति का नतीजा है। वो भी इसलिए क्योंकि एकरेखीय सोच उनसे कुछ भी करवा सकती है। हिंसा के रास्ते से भीड़ अपने तथाकथित उद्देश्यों की पूर्ति करने की चेष्ठा करती है। हिंसा एक बार आरंभ हो जाए, चाहे वह किसी लेशमात्र घटना के कारण ही क्यों न हो, फिर सम्पूर्ण शान्ति दूर का विकल्प बन जाती है। हिंसा का कारण सदैव दोनों पक्ष बन जाते हैं। फिर किसी एक पर दोषारोपण करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आरम्भ जो भी करे, प्रतिक्रिया जो भी दे, हिंसा का अंग दोनों ही पक्ष होते हैं।









आज सारा भारत मणिपुर से आए एक वीडियो से रोष में है। ऐसी ही घटनाएं बंगाल तथा अन्य कई राज्यों में देखी जा सकती हैं। स्वभाविक है, इस कृत्य की निंदा शब्दों में नहीं की जा सकती। न ही कोई भी प्रक्रिया आने वाले समय में इसके प्रभाव को रोक सकती है। हिंसा में ज्यादातर घटनाएँ बदले की भावना के साथ की जाती हैं। जिसमें दोनों ही पक्ष अपने से इतर पक्ष पर दोषारोपण करते हुए भी अपने हाथ खून से रंगा लेते हैं। कोई इस घटना को निंदनीय कह रहा है, कोई जधन्य, कोई नृशन्स। इस प्रकार बहुतेरे शब्दों और विशेषणों का प्रयोग होता रहा है। मैं इसे इन शब्दों से परे देखता हूँ। भारत में विविधताएं है पर प्रत्येक भूभाग में हम संस्कृति के पोषक और वाहक रहे हैं। मेरी समस्या उस भीड़ के प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क से है जो स्वेच्छा से उस कृत्य में लिप्त है। ऐसा क्या सोचा गया होगा कि वे ऐसा कर बैठे? क्या वे आज तक इसी मानसिकता के साथ समाज में रहे? क्या उन्हें अब तक यही सिखाया गया था? उस भीड़ में से एक भी व्यक्ति ने इस कृत्य को होने से रोकने का प्रयास नहीं किया। क्या उन सबों की मानसिकता इतनी मर चुकी थी कि वे इस घटना को किसी भी स्तर तक जाने से रोकते?



बात यह नहीं कि सुदूर पश्चिम में कुछ देशों का समूह जिसे हम युरोप कहते है, वहाँ का कोई संघ मणिपुर के हालातों की निंदा करता है। सवाल यह भी नहीं कि सरकार और विपक्ष इसपर क्या कहते हैं, क्योंकि राजनीति की मणिपुर ही नहीं अपितु पूरे पूर्वोत्तर के प्रकरण में निर्लिप्तता आज से नहीं बल्कि राज्यों के निर्माण और लोगों के विषेश अधिकार मिलने के समय से चली आ रही है। समस्या का मूल यह है कि मानव मन इतना क्रूर है कि वह ऐसी घटना को करते और होते देखता भी है। यह समस्या अब इस मोड़ पर है जहां यह बात नगण्य हो जाती है कि कौन किस समुदाय से था क्योंकि हिंसा में हर ओर से एक-एक कठोर दृश्य आते रहे हैं। इस बात पर भार न देते हुए कि कौन से समुदाय के लोग निर्लिप्त हैं, क्योंकि उसके प्रतिक्रियात्मक हिंसा बढ़ती ही है, एक समग्र शान्ति हेतु प्रशासन द्वारा कड़ी सैन्य कार्यवाई की आवश्यकता है। वैसे तो इस घटना के बाहर आने का इंतजार ही नहीं होना था, पर अब देरी उचित नहीं। फिर चाहे अन्तराष्ट्रीय सीमा से लेकर क्षेत्रीय बच्चों के विद्यालय जाने तक की बात हो, राज्य को अब यथास्थिति नहीं छोड़ा जा सकता।



बताया जा रहा है कि यह पूरी घटना 4 मई 2023 की है। मौके से मैं हिंसा के भड़कने के दौरान इंफाल में ही था और स्थिति 3 मई की शाम से बिगड़ती दिखने लगी थी। तब से आज तक यह वीडियो कहाँ किसके पास था? उसके कारण कितनी ही अन्य हिंसक घटनाएं जन्मी होंगी। उसके क्या क्या मानसिक और सामाजिक प्रभाव रहे होंगे। स्थानीय पुलिस से उम्मीद का दौर तो उठ ही चुका है, अब स्थिति को बृहद् स्तर पर समेटने की आवश्यकता है। जिम्मेदारी ठहराते और स्थिति को समझते ढाई महीने हो चुके है। यह समस्या भले ही एक संवैधानिक विशेषाधिकार को लेकर पनपी, भले ही बात एक पुराने अधिकार के देने की हो जोकि 1949 में ले लिया गया था, लेकिन उसपर फिक्र अभी जायज नहीं। हमारे प्रशासन में ताकत तो बहुत है, पर अब कार्यवाई उचित न हुई तो विश्वास उठते देर नहीं लगगी। यह कृत्य मानवता को रोकता है, ये सोचने के लिए की हमारा प्रत्येक कदम क्या और क्यों होता है। भारत के किसी भी राज्य की घटना हो, पर कृत्य निंदनीय सब जगह ही हैं। इसका राजनीतिक पक्ष तो सबको दिख रहा है। खूब आरोप प्रत्यारोप हो भी रहे हैं। सभी पक्ष अपना स्वार्थ भुनाने में लगे हैं, इसपर जब तक मानवता चेत कर आगे नहीं आयेगी, राजनीतिक गतिरोध नहीं रुकने वाला, ऐसी घटनाएं और ये प्रतिक्रियाएं ऐसे ही चलती रहेंगी। पर मानव मन पर की गई एक चोट भी हम सब को कुछ न कुछ सीखा सकती है।



मानव मन के कृत्य किसी भी स्तर के हो सकते हैं ये तो दृष्ट हुआ ही। पर अब केंद्र सरकार को टोटल कन्ट्रोल लेने की आवश्यकता है। रास्ता क्या होगा, ये समझाने के लिए हम और आप छोटे हो सकते हैं, पर पुर्वोत्तर जोकि अंधकार से उठकर पिछले कुछ वर्षों में परिवर्तित हो रहा था, उस क्रम पर वापस जाना हमारा परम लक्ष्य होना चाहिए। फिक्र इस बात की नहीं कि भारत के उद्दात आदर्शों पर विश्व क्या कहेगा, फिक्र यह है कि स्त्री शक्ति के लिए लंका युद्ध और महाभारत करने वाला देश आज क्या कर पाता है।






- उत्कर्ष मिश्र

utkarsh.kalyan19@gmail.com










1 Comment


Guest
Aug 20, 2023

बहुत ही अच्छा लिखा आपने, मेरा मानना है कि हमारे समाज में स्त्री की सेक्सुअलिटी को बहुत ही बड़ा करके देखा जाता है, जबकि ऐसी घटनाएं पुरुषों के साथ देखने को नहीं मिलती। पुरुषों सेक्सुअलिटी को इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसलिए भीड़ भी यहीं मानती है कि इस असामाजिक कृत्य से स्त्री की गरिमा मिटा दिया जाए।

Like

Drop us a line, let us know what you think

Thanks for submitting!

© 2025 | Caucus, Hindu College, University of Delhi, Delhi, India.

bottom of page